Sunday, September 9, 2012

मेला


पुश्तैनी घर के मह्हल्ले की बराबर वाले हाट बाज़ार से सटे मिलिटरी मैदान मैं
अब भी मेला लगता है क्या?

बचपन मैं पापा के कंधे पे चढ़के जाता था
उचक उचक कर देखता था, हर छेय महीने पे लगता था, क्या रौनक होती थी।

घर से निकलते ही खुश हो जाता था, पता था पापा बरफ दिलाएगे,
और वो एक सैंटे से बना झुनझुना जिसमें पत्थर भरे होते थे,
जिनका शोर बहुत मीठा लगता था।

आठ आने मैं मिलता था चिड़ियों का एक जोड़ा, टीन का बना
कितना खुश होता था मैं, उन खिलोनो की दूकान पे जाता था जब
रोता भी था, पापा वो कपडे का बना खरगोश नहीं दिलाते थे जब
कहते थे अगली दफा लैगे।

नीचे बड़े भैया पापा की उगली थामे चलते थे,
बीच बीच मैं मुझसे कुछ पूछते थे,
बरफ वाले की स्टाल आते ही हाथ छुड़ा कर भाग पड़ते।
मैं बरफ हाथ में आने तक नजर गडाए रहता।

"नहीं अब ऐसा मेला नहीं लगता, एक बड़ी दवा फैक्ट्री लग गयी है वहां", मित्र ने बताया
जो अभी-अभी लोटा है वहां से, मेरे लिए मिटटी लाया है

खुशबू बताती है ये वही है, जिसपे मैंने चलना सीखा था
इसपे खेला, पला, बड़ा हुआ था,
कभी कभी खा भी लिया करता था अनजाने मैं, माँ बताती है।

भर ली मैंने अपनी जींस की जेबों मैं,
वो चुटकीभर मिटटी,
गाँव की ठंडी ताज़ी हवा, खिलोने, तितलियां, जुगनू , तारे, बरफ
जैसे सब कुछ इस मिटटी की खुशबू मैं घुल मिल गए थे
एक पल को लगा जैसा एक पूरा आसमान ले कर चल रहा था मैं अपने साथ
ये किस मेले मैं आ गया था मैं?

शंकर बक्शी ।

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