Sunday, September 16, 2012

हैरान

मिलाया मुझको उससे, पहले ये एहसान किया 
मैंने दिल-जान सभी, उस पे ये कुर्बान किया  

मिल के सब खो गया, जैसे कोई सजा दी हो
इब्ने-मरियम का मैंने, क्या कोई नुक्सान किया

तपाया जिस्म, जलाये ख़त, मिटाई तस्वीरें 
तुझे भुलाने को, क्या कुछ नहीं सामान किया

है प्यास अब भी , पी चुका मैं वो आसूं तमाम 
लहूँ को सोख लिया, चाक गिरेबान किया

किसी पनघट पे बैठा,  बांसुरी बजाता है 
आज फिर उसकी बे निजाई ने हैरान किया

Saturday, September 15, 2012

याद

मैं भूलूँ भी तो कैसे, हर वक़्त तेरी याद आती है 
न जाने साँस आती है, की तेरी याद आती है

ग़ज़ल कहते हुए महफ़िल में, जब खामोश हो जाऊं 
मैं जतलाता तो नहीं हूँ, पर तेरी याद आती है 
 
मेरे अंदाज़ और इस बानगी की, सुखनवरी की  
कोई तारीफ करता है, तो तेरी याद आती है 

ये धरती अपने साये से छुपा ले चाँद को जब भी 
बहुत तड़पाता है मंजर, और तेरी याद आती है   

कोई समझाए मुझको इस जहाँ और उस जहाँ के राज़
मैं क्यूँकर मिल नहीं सकता, बस तेरी याद आती है 

हासिल

उसने हासिल किया वो ताज, जिसकी चाह थी 
यही थी मंजिल, सारी उम्र जिसकी राह थी

दो बूढ़ी आँखों ने बेटे का टेलीग्राम पढ़ा 

Friday, September 14, 2012

काम

सीने मैं भर के तमाम धुंआ
और फिर पानी के साथ भरके बेहिसाब तेज़ाब
शायद अपने आप को मिटाने की कोशिश है, दर्द की

जानता है के मिट न पायेगा इस तरह से
इससे तो तकलीफ और भी बड़ जाएगी
फिर भी एक कोशिश है, जो तुम से न हुई

बस के इतना ही कहा था मैंने
हस्पताल की उस बेड पे, जब तुम पड़ी थी दर्द मैं
कि थोड़ी थोड़ी देर को सांसे लेते रहना
अफ़सोस की मेरा इतना सा भी काम, तुमसे न हुआ
कितना जरुरी था वो
मेरे जिंदा रहने को


एक

मुझमें तेरी वाणी गूंजे, तेरी आवाज़ सुनाई दे 
जिस और तकूँ बस तू ही तू , तेरा प्रतिबिम्भ दिखाई दे
मैं अलग न हो पाया हूँ कभी, तेरे होने के होने से 
एक हो जाने की ख्वाइश का, कैसा ये रंग दिखाई दे 

है कौन अलग कर पाया भला, कस्ती को दरिया लहरों को 
हम एक हुए माने मिल गए, बेनाम हमारे चेहरों को    
तू हाथ पकड़ चल साथ मेरे जिस और भी राह दिखाई दे
दुनिया की चाह न मंजिल की, न दर्द न आह सुनाई दे    

  
 

Thursday, September 13, 2012

फिर भी

दर्द का क्या जो बयाँ करना  
क्या है नया जो कहना सुनना 

एक हिस्सा तो ये सबके पास है 
दिल का एक कोना तो सबका उदास है 

फिर ये तेरी पलकें भीग क्यों जाती हैं 
वो जो दफन यादें हैं बार बार क्यूं आती हैं  

इनकी नमी से क्या दर्द को सहलाएगा
ए नादान तू न चाहे, दिल तो फिर भी चाहेगा 



Wednesday, September 12, 2012

हमेशा

मैंने उससे कहाँ "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो",
वो हल्का सा मुस्काई और बोली "मैं तो तुम्हे कितना दर्द देती हूँ" 
"जानता हूँ, फिर भी मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ" मैंने फिर कहा।

"मैं तुम्हे एक दिन छोड़ जाऊंगी" उसने याद दिलाया, 
"तुम अब भी कहाँ मेरे पास हो" मेरी आखों मैं दर्द था।

"तुम क्यूं चाहते हो मुझे" उसने पूछा,
"केवल इसलिए की मैं खूबसूरत हूँ, या इसलिए के मुझे खोने का डर सताता है तुम्हे"    
 "इसलिए की अपने आप से और तुम से कुछ वादे किये हैं" मैंने समझाया।

"मुझसे ज्यादा क्या चाहते हो किसी और को?" उसने मेरी आँखों मैं देख कर कहा,
मैंने अपने आस पास के जमा लोगो को देखा, खामोश रहा 
उसे जवाब मिल गया था।

"क्यों इतना मोह?" 
"नहीं जनता।" 
"क्यों इतना पागलपन?" 
"तुम ही बताओ।" 
    
"क्यों नहीं लगा लेती एक बार गले, मुझे मुक्ति मिल जाये?" इस बार मैंने पूछा, 
"क्या सचमुच ऐसा चाहते हो?" उसने सवाल किया और मैं चुप रहा 
नहीं मुझे तो बस तुम्हारे साथ रहना है, अन्दर से आवाज आयी।

कल रात ख्वाब मैं ज़िन्दगी से कुछ इस तरह ही मुलाकात हुई 
मैंने ज़िन्दगी से कहा "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो",
वो हल्का सा मुस्काई और बोली " मैं तो तुम्हे कितना दर्द देती हूँ"
"जानता हू, फिर भी मुझे तुम्हारे साथ रहना है"
हमेशा ।  



Monday, September 10, 2012

अक्सर

दुनिया मैं कितने लोग हैं जो तुम्हे समझ पाते हैं,
जो नहीं समझते वो तुम्हे गलत मान कर मुह फेर लेते हैं । 

शायद इसी लिए इतना पाक और रोशन होने पर भी,
तन्हाई और उदासी के अँधेरे, अक्सर तुम्हे घेर लेते हैं ।। 



Sunday, September 9, 2012

मेला


पुश्तैनी घर के मह्हल्ले की बराबर वाले हाट बाज़ार से सटे मिलिटरी मैदान मैं
अब भी मेला लगता है क्या?

बचपन मैं पापा के कंधे पे चढ़के जाता था
उचक उचक कर देखता था, हर छेय महीने पे लगता था, क्या रौनक होती थी।

घर से निकलते ही खुश हो जाता था, पता था पापा बरफ दिलाएगे,
और वो एक सैंटे से बना झुनझुना जिसमें पत्थर भरे होते थे,
जिनका शोर बहुत मीठा लगता था।

आठ आने मैं मिलता था चिड़ियों का एक जोड़ा, टीन का बना
कितना खुश होता था मैं, उन खिलोनो की दूकान पे जाता था जब
रोता भी था, पापा वो कपडे का बना खरगोश नहीं दिलाते थे जब
कहते थे अगली दफा लैगे।

नीचे बड़े भैया पापा की उगली थामे चलते थे,
बीच बीच मैं मुझसे कुछ पूछते थे,
बरफ वाले की स्टाल आते ही हाथ छुड़ा कर भाग पड़ते।
मैं बरफ हाथ में आने तक नजर गडाए रहता।

"नहीं अब ऐसा मेला नहीं लगता, एक बड़ी दवा फैक्ट्री लग गयी है वहां", मित्र ने बताया
जो अभी-अभी लोटा है वहां से, मेरे लिए मिटटी लाया है

खुशबू बताती है ये वही है, जिसपे मैंने चलना सीखा था
इसपे खेला, पला, बड़ा हुआ था,
कभी कभी खा भी लिया करता था अनजाने मैं, माँ बताती है।

भर ली मैंने अपनी जींस की जेबों मैं,
वो चुटकीभर मिटटी,
गाँव की ठंडी ताज़ी हवा, खिलोने, तितलियां, जुगनू , तारे, बरफ
जैसे सब कुछ इस मिटटी की खुशबू मैं घुल मिल गए थे
एक पल को लगा जैसा एक पूरा आसमान ले कर चल रहा था मैं अपने साथ
ये किस मेले मैं आ गया था मैं?

शंकर बक्शी ।