Saturday, August 16, 2008

चार आंखें


दूर जाता पलायन कर , मन ये चंचल
रोकता है टोकता है, एक बंधन चार आंखें
आंसुओं से सनी हुई , मोम की सी बनी हुई
देखती हैं एक स्वपन को, ढूँढती है अपने पन को
चार आंखें

जगता है, भागता है, अभिरणय में और वन में
ढूंढता है अंजुली भर , सुधा जल को
जो भुला दे बन्धनों को क्रन्दनो को
निशा थक के सो गई है, नींद में यह खो गई है
छोड़ आया तोड़ आया - एक सपना चार आंखें
बंद थी दिन की थकन से
देख पी न मुझे
पर देखती थी उस समय जो
एक स्वपन को अपने पन को

सनसनाती है हवा , जो बह रही विपरीत मेरे
चीरता हूँ खोजता हूँ, मार्ग अपना, ले के सपना
याद आया थी लगी ठोकर मुझे
जब चला था मैं "दिया" घर का
दिया था न ध्यान जिसपर
टीसता है - पीसता है अब जो मन को



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