Sunday, August 17, 2008

एहसास


मैं वाह वाही के पत्तल पर
अभिमान की जीब से,
प्रसंशा की जूठन चाटता हूँ,
पर मर गया हूँ या जिंदा हूँ
देखने के लिए कभी - कभी
ख़ुद को चकोटी काटता हूँ

सड़क पे पड़ी लाश देखकर, कन्नी काट जाता हूँ
मरे हुए लोगो का भी रुपया खा जाता हूँ
बाढ, आग, भूकंप से , फायदा उठाता हूँ
जितना मिलता है, उससे ज्यादा कमाता हूँ
काले-गोरे लोगो को लाठियाँ थमाता हूँ
ख़ुद को गोरों का रक्षक, कालों का मसीहा बताता हूँ

कोट पैंट पहन कर, भीख मांगने जाता हूँ
कुर्ता धोती पहन कर साधू बन जाता है
लोगो की भीड़ में मैं, चीखता चिल्लाता हूँ
मेरे आगे कोई रोये , तो मैं नींद में खो जाता हूँ
मैं मदारी के जैसा हूँ , मजमा लगता हूँ
पर मैं खेल दिखता नहीं , ख़ुद खेल जाता हूँ
राजनीती की सतरंज में, मेरे माप दंड दोहरे हैं
मेरी बिसात में दो चार नहीं, नब्बे करोड़ मोहरे हैं

में खुशिओं के प्यासे लोगो में
आंसू से भीगी पलकों में
झूंठें सपने, आशाओं आँकाक्षाओं को बांटता हूँ
पर मर गया हूँ या जिंदा
देखने के लिए कभी-कभी
ख़ुद को चकोटी हूँ





No comments:

Post a Comment